
हिमालय विश्व की सबसे युवा पर्वत श्रृंखला है, जो लगातार भू-वैज्ञानिक रूप से सक्रिय है। यही कारण है कि यह क्षेत्र प्राकृतिक दृष्टि से संवेदनशील माना जाता है। हाल के दशकों में यहाँ आपदाओं की संख्या और तीव्रता दोनों बढ़ी हैं।
आपदाओं की बढ़ती तीव्रता के कारण: (क) प्राकृतिक कारण: भूवैज्ञानिक सक्रियता : हिमालय ज़ोन-IV और V में आता है, इसलिए बड़े भूकंप की आशंका हमेशा रहती है। जलवायु परिवर्तन:, औसत तापमान में वृद्धि से ग्लेशियर तेजी से पिघल रहे हैं, असमान्य वर्षा पैटर्न, बादल फटना, लंबे समय तक भारी वर्षा, भूस्खलन प्रवण ढलानें : ढलानों की प्राकृतिक अस्थिरता। (ख) मानवजनित कारण: अनियंत्रित सड़क व सुरंग निर्माण : बिना भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण के, हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स : नदी तट और ढलानों की अस्थिरता बढ़ाते हैं, वनों की कटाई और भूमि उपयोग परिवर्तन: प्राकृतिक अवरोध खत्म होने से भूस्खलन व बाढ़ का खतरा बढ़ा, पर्यटन व शहरीकरण का दबाव: अतिक्रमण और अव्यवस्थित बस्तियाँ। आपदाओं के प्रमुख रूप: भूस्खलन : हर साल मानसून में सैकड़ों स्थान प्रभावित, सड़कें व गाँव कट जाते हैं, अचानक बाढ़: बादल फटने से कुछ ही घंटों में भारी विनाश (उदाहरण– 2010 लद्दाख, 2021 उत्तराखंड), भूकंप : ऐतिहासिक रूप से बड़े भूकंप (1905 कांगड़ा, 2015 नेपाल) ने व्यापक तबाही मचाई, हिमस्खलन : सैनिक व स्थानीय लोग लगातार प्रभावित होते हैं, ग्लेशियर झील फटना (GLOFs) : 2013 केदारनाथ और 2021 ऋषिगंगा जैसी घटनाएँ। बढ़ती तीव्रता के प्रभाव: मानव जीवन : हर साल हजारों जानें जाती हैं, आर्थिक हानि : सड़कें, पुल, बिजली परियोजनाएँ व कृषि प्रभावित, पर्यटन पर असर : चारधाम यात्रा, हिमाचल व कश्मीर पर्यटन प्रभावित, सामाजिक विस्थापन : गाँव उजड़ते हैं, लोगों को पुनर्वासित करना पड़ता है, पर्यावरणीय क्षति : नदियों का मार्ग बदलना, भूमि क्षरण, जैव विविधता प्रभावित। निवारण एवं प्रबंधन: सतत विकास की योजना : भू-वैज्ञानिक और पर्यावरणीय अध्ययन के आधार पर निर्माण कार्य, आपदा पूर्व चेतावनी प्रणाली को मजबूत करना, स्थानीय समुदाय की भागीदारी : ग्राम स्तर पर आपदा प्रबंधन प्रशिक्षण, वनों व पारिस्थितिकी का संरक्षण, भूमि उपयोग पर कड़ा नियमन: संवेदनशील क्षेत्रों में अवैज्ञानिक निर्माण पर रोक। जलवायु अनुकूलन नीतियाँ: वर्षा जल प्रबंधन, ग्लेशियरमॉनिटरिंग। हिमालय क्षेत्र में आपदाओं के समाधान, नीति और योजना स्तर, सतत विकास: सड़क, सुरंग, हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट आदि का निर्माण भू-वैज्ञानिक अध्ययन और पर्यावरणीय मंजूरी के बाद ही हो, भूमि उपयोग नियंत्रण संवेदनशील ढलानों और नदी किनारों पर अनियंत्रित निर्माण पर रोक, कानूनी ढांचा सख्त करना: आपदा प्रभावित क्षेत्रों में भवन निर्माण संहिता का अनिवार्य पालन, हरित नीति: पुनर्वनीकरण, कैचमेंट एरिया ट्रीटमेंट और नदी तट प्रबंधन, तकनीकी और वैज्ञानिक उपाय, अर्ली वार्निंग सिस्टम:, मौसम पूर्वानुमान, क्लाउडबर्स्ट और ग्लेशियर मॉनिटरिंग के लिए सैटेलाइट और रडार तकनीक, भूस्खलन प्रवण क्षेत्रों में सेंसर आधारित अलार्म सिस्टम, ग्लेशियर व झील मॉनिटरिंग: रोकने हेतु झीलों का नियमित निरीक्षण, सुदृढ़ निर्माण तकनीक: ढलानों पर रिटेनिंग वॉल, बायो-इंजीनियरिंग और सुरक्षित भवन डिज़ाइन, डेटा बेस और मैपिंग: उच्च जोखिम क्षेत्रों की भू-वैज्ञानिक एवं आपदा संवेदनशीलता मैपिंग।
समुदाय और स्थानीय स्तर: आपदा शिक्षा व जागरूकता: ग्राम स्तर पर मॉक ड्रिल, प्राथमिक चिकित्सा और आपदा प्रतिक्रिया प्रशिक्षण, स्थानीय भागीदारी: गाँवों में स्वयंसेवी समूह बनाना, पारंपरिक ज्ञान का उपयोग: पहाड़ी घरों की पारंपरिक वास्तुकला व जल प्रबंधन तकनीक का संरक्षण, सुरक्षित आजीविका: स्थानीय लोगों को ऐसी जीविका विकल्प (जैसे ईको-टूरिज्म, जैविक खेती) देना जो पर्यावरण पर कम दबाव डालें।
जलवायु अनुकूलन रणनीतियाँ: वर्षा जल संचयन और लघु सिंचाई प्रणालियाँ, पर्वतीय नदियों का प्राकृतिक बहाव बनाए रखना, ग्लेशियर और वनों के संरक्षण को विकास योजनाओं से जोड़ना, नवीकरणीय ऊर्जा पर अधिक निवेश ताकि जलविद्युत परियोजनाओं का दबाव घटे।
प्रशासनिक व आपदा प्रबंधन उपाय: जिला व राज्य स्तर पर आपदा प्रबंधन योजनाएँ समय-समय पर अपडेट हों, रेस्क्यू, राहत और पुनर्वास के लिए त्वरित बल की तैनाती, मोबाइल ऐप और SMS आधारित चेतावनी प्रणाली, प्रभावित परिवारों के लिए बीमा व राहत पैकेज। निष्कर्ष: हिमालय क्षेत्र में आपदाओं की तीव्रता बढ़ना केवल प्राकृतिक कमजोरी का परिणाम नहीं है, बल्कि मानवजनित दबाव और जलवायु परिवर्तन भी इसके बड़े कारण हैं। यदि विकास को पारिस्थितिक संतुलन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से न जोड़ा गया तो भविष्य में आपदाएँ और भी घातक रूप ले सकती हैं।हिमालय क्षेत्र में आपदाओं का पूरी तरह रोकना संभव नहीं है क्योंकि यह भौगोलिक रूप से संवेदनशील क्षेत्र है। लेकिन वैज्ञानिक योजना, पर्यावरण संरक्षण और सामुदायिक भागीदारी से इनकी तीव्रता और नुकसान दोनों को कम किया जा सकता है।
लेखक:
राजन कुमार शर्मा
गांव डुगली, जिला हमीरपुर हिमाचल प्रदेश।
